Sunday, May 4, 2014

स्टिंग आपरेशन !

साधुवाद उनको देते हम, जो हैं ऐसे चैनल वाले।
उनको बेनकाब करते हैं, करते हैं जो धंधे काले॥
    स्टिंग आपरेशन करके वे, बिना खौफ सब कुछ दिखलाते।
    बड़े बने जो इज्जतवाले, उनका असली रूप बताते॥
ऐसा होता रहा अगर जो, तो अपराधी नहीं बचेंगे।
गुप्त कैमरे छिपा कर उनको, जहां छिपेंगे वहीं धरेंगे॥
    कितने नेता धूल चाटते, आसमान पर थे इतराते।
    धन कुबेर भी फंस जाते हैं, पैसे देकर जो बच जाते॥
                                     -डॉ. रुक्म त्रिपाठी

ये गठबंधन की सरकारें!

गठबंधन की सरकारों में, होती जम कर सौदेबाजी।
पद भी लें, रुपये भी ऐंठें, तभी साथ देते कुछ पाजी॥
    इस पर भी उनके नखरों को, मजबूरन ही सहना होता।
    गर सरकार बचानी हो तो, 'हां' में 'हां' करना ही होता॥
दल बदलू कानून बना जो, उसकी देखें छीछालेदर।
सुबह-शाम दल बदले जाते, कुछ होता ना इसको लेकर॥
    ऐसे में विकास की आशा, कैसे करें जरा समझायें।
    वे चिंता में डूबे रहते, कुर्सी अपनी खिसक न जाये॥
                         -डॉ. रुक्म त्रिपाठी

Sunday, December 29, 2013

इंतजार



 कहानी
 डॉ. रुक्म त्रिपाठी
      सुबह-सुबह एक मनहूस खबर से सारा कस्बा सन्न रह गया। जिस वैद्य ने डायरिया के सैकड़ों रोगियों की जान बचायी, वह उसी की चपेट में कस्बे के बाहर सरकारी अस्पताल में पड़ा छटपटा रहा है।
      चोटे वैद्य चंद्रप्रकाश दुबे, जिनकी बदौलत कस्बे का एक भी आदमी डायरियासे मरने नहीं पाया, वह आज खुद मौते से लड़ रहाहै। उन्होंने दवा के रूप में एक ऐसी संजीवनी तैयारकी थी , जो डायरिया के रोगी को मौत के जबड़े से निकाल लाती। वह संजीवनी इन्होंने खुद क्यों नहीं ली, हर आदमी यही सोच रहा था।
      कस्बे के बाहर एक छोटा सा तीन कमरे का अस्पताल था। जिसमें दो साल बाद रिटायर होने वाले डाक्टर हरि नारायण वर्मा औरअधेड़ उम्र के कंपाउंडर देवव्रत दास तो थे, लेकिन दवा एक भी नहीं थी।
      रोगी आता। डाक्टर वर्मा उसकी जांच करते।दवा का पुर्जा थमा देते। उनमें से कुछ दवाएं ही कस्बे के छोटे मेडिकल स्टोर में मिल पातीं। बाकी दवाओं के लिए पच्चीस मील दूर शहर जाना पड़ता।
      कस्बे के लोगों ने कई बार डाक्टर साहब से प्रार्थना की थी, 'कम से कम प्लेग, डायरिया और सांप के डंसने की दवा तो रखिए।'
      डाक्टर वर्मा एक ही जवाब देते-'मैंने मेडिकल आफीसर को कई बार लिख कर भेजा-यहां कोई दवा नहीं है। रोगियों का इलाज कैसे हो? जरूरी दवाओं की फेहरिश्त भेजी जा रही है. मेहरबानी करके इन्हें जल्द भिजवाइए। मगर हर बार जवाब नदारद। आज की हुकूमत में यही है कस्बाई अस्पतालों का हाल।'
      वैद्य चंद्रप्रकाश की बीमारी की खबर फैलते ही अस्पताल के सामने मैदान उनके प्रशंसकों से भर गया। उन्होंने देखा चंद्रप्रकाश के बड़े भाई वैद्य सूर्यनारायण दुबे एक पेड़ की छाया में घास पर बिछी दरी पर अपने चमचों से घिरे बैठे हैं और छालिया काट कर फांकते हुए गपशप कर रहे हैं।
      चंद्रप्रकाश हमउम्र होने के नाते मेरे जिगरी दोस्त थे, जो मुझसे कोई बात नहीं छिपाते थे। डाक्टर वर्मा से मैंने उनका हाल पूछा, तो उन्होंने कहा-'क्या होगा , कुछ कहा नहीं जा सकता। अस्पताल में डायरिया की कोई दवा नहीं है। चीनी और नमक मिला गोल थोड़ी-थोड़ी देर में गला तर करने भर के लिए देते जाइए।'
      मैंने वैद्य सूर्यनारायण दुबे से पूछा-'डायरिया की शर्तिया दवा जब आपके पास है, तो आप उसे क्यों नहीं दे रहे?'
      जवाब मिला-'बहुत खोजा। नहीं मिल रही।'
      'तो यहां बैठने से क्या मिलेगा? जाइए, खोजिए।'
      मैंने चंद्रप्रकाश से पूछा-' डायरिया की वह दवा कहां रखी है, जिससे आपने सैकड़ों रोगियों को अच्छा किया था? आपके भाई साहब को मिल नहीं रही।'
      वह सबसे बड़ी बोतल में है। भाई साहब जानते हैं। वही रखते हैं।'
      मुझे लगा बड़े भाई जानबूझ कर वह दवा नहीं देना चाहते, क्योंकि उनक मन में कोई खोट है। तभी तो वे छोटे भाई को देखने और हाल चाल पूछने तक उनके पास नहीं आते, जबकि दूसरे लोग देखने और हाल पूछने आ रहे हैं।
      मैं मित्र के पास बैठा नमक और चीनी का घोल थोड़ी-थोड़ी देर में सूती से दे रहा था, क्योंकि चम्मच नहीं मिली।
      थोड़ी देर बाद मित्र अचानक छोटे बच्चे की तरह हिचकी भर कर रो उठे। वह हिचकी उनके बड़े भाई ने भी सुनी। मगर वे टस से मस नहीं हुए।
      मैंने उनसे रोने की वजह पूछी, तो उन्होंने धीमी आवाज में कहा, 'भाई साहब मेरे हिस्से की जायदाद हथियाने के लिए मुझे जिंदा नहीं देखना चाहते शर्मा। वे जानते हैं कि वह दवा कहां रखी है।'
      'मुझे भी ऐसा ही लगता है। उनकी नीयत में खोट है। वरना वे  अब तक दवा ले आये होते। यहां बैठे गपशप न करते होते।'
      मैंने उन्हें ढांढ़स बंधाते हुए कहा-' रोइए नहीं। तबीयत और बिगड़ जायेगी। आपने सैकड़ों लोगों को मरने से बचाया है।वे सब यहा हाजिर हैं और आपके जल्द अच्छा होने के लिए भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं। '
      ' वह सब बेकार है शर्मा। मैं अब  नहीं बचूंगा। तुम मेरा एक काम करोगे?'
      'हां, हां। कहिए।'
      'मेरी ससुराल खबर भेज कर मेरी पत्नी को बुला लो। उसकी बहुत याद आ रही है। जानते हो शर्मा! मैंने शादी के वक्त,उसके पहले और बाद में उसका मुखड़ा नहीं देखा।'
      'यकीनन वह बहुत खूबसूरत होगी। जब शादी हुई थी, तब वह शुरू से आखिर तक लंबा घूंघट काढ़े रहती थी। मरने के पहले उसका प्यारा मुखड़ा देखने की बड़ी लालसा है शर्मा। देख लूंगा, तो शांति से मरूंगा।'
      मैं उनके बड़े भाई के पास आया और धीरे से उनके कान में कहा,'चंद्रप्रकाश जी अपनी पत्नी से मिलना चाहते हैं। बुला लीजिए।'
      उन्होंने कहा-'बिना गौना के वह ससुराल कैसे आयेगी? गौना कराने का मुहूर्त तीन माह बाद निकला है।'
      'ससुराल नहीं, अस्पताल तो आ सकती है।'
      उन्होंने टका सा जवाब दिया-'कहा न, बिना गौना नहीं।'
      अब मुझे पक्का यकीन हो गया कि मित्र का यह कहना गलत नहीं है कि भाई साहब मुझे जिंदा नहीं देखना चाहते।
      मित्र ने मुझे अपने बड़े भाई से बतियाते देख लिया था। लौट कर मैंने कहा-' आपके भाई ने कहा है, किसी से भेज कर हमारी भाभी को बुलाये लेते हैं।'
      'झूठ। सरासर झूठ। तुम कुछ कर सकते हो तो करो। तुम नहीं जानते शर्मा, मरे बड़े भाई के मेरे प्रति दुश्मन जैसे व्यवहार को देख कर पिता जी अपने जीते जी जायदाद का , जिसमें चार सौ बीघा खेत भी हैं, बंटवारा करना चाहते थे।
      'किंतु मेरी किस्मत को यह मंजूर नहीं था। तभी तो अचानत दिल का दौरा पड़ने से वे चल बसे। वह तो पिता जी मेरी शादी पक्की कर गये थे, इसलिए भाई को मजबूरन करनी पड़ी। वरना वे मुझे कुमारा ही रखते।'
      मैंने पूछा-'जब आपकी तबीयत खराब होने लगी थी, तब आपने वह संजीवनी बूटी क्यों नहीं खा ली।'
      उन्होंने कहा, 'मैं पास के एक गांव में मलेरिया के एक रोगी को देखने गया था। वहां का पानी पीने के कुछ देर बाद ही डायरिया हो गया। तब मेरे जोला में दवा नहीं थी।'
      'डायरिया का हमला इतना तेज था कि कै और दस्त बंद ही नहीं हो रहा था। तभी कुछ लोग मुझे बैलगाड़ी में लाद कर नीम बेहोशी की हालत में इस अस्पताल में चोड़ गये। आधी रात को।'
      'सुबह ठंडी हवा लगने से हालत कुछ सुधरी, तो डाक्टर साहब ने कंपाउंडर को भेज कर भाई साहब को बुलाया। मगर वे खाली हाथ आये। दवा नहीं लाये।'
      मैंने मित्र को ढांढ़स बंधाया -'मैं सब समझ गया हूं। चिंता न करें। सुधीर को साइकिल से आपकी ससुराल भेज दिया है। बीस मिनट में पहुंच जायेगा। तीन मील ही तो है। '
      मित्र ने पूछा-'सुधीर कौन है?'
      'भूल गये। अरे वही, कमला स्टोर का मालिक। एक साल पहले मेरे साथ आपकी शादी में गया था।'
      'होगा, मुझे याद नहीं।'
      आधा घंटा बाद मित्र की हालत तेजी से बिगड़ने लगी। आवाज भी धीमी हो गयी। उनका गला तर करने के लिए मैं चीनी-नमक का घोल मुंह में डाले जा रहा था। पांच-पांच मिनट में।
      थोड़ी देर बाद मित्र की आंखें बंद हो गयीं, तो मैं घबड़ा गया। नाड़ी देखी, चल रही थी। मेरे छूते ही उन्होंने आंखें खोल दीं और पूछा-'वह आ गयी क्या?'
      'नहीं, सुधीर ने आ कर बताया, बारिश हो जाने से कच्चे रास्ते में बैलगाड़ी नहीं चल सकती। इसलिए भाभी को लाने के लिए डोली और कहारों का इंतजाम किया जा रहा है। इसीलिए आने में देर हो रही है।'
      मित्र की खुशी के लिए मैंने यह सब मनगढंत कहा था।
      'ठीक है। मैं सो जाऊं तो उसके आते ही जगा देना।'
      किंतु पत्नी के आगमन की खुशी में उन्हें नींद नहीं आ रही थी। रह-रह कर पूछ लेते-'वह आ गयी क्या?'
      मैंने उन्हें समझाया-'भाभी जी चल दी हैं। रास्ते में हैं। कीचड़ की वजह से नहर के रास्ते से आ रहे कहार धीरे-धीरे चल रहे हैं, जिससे पैर फिसल जाने से डोली उलट न जाये।'
      मित्र को मेरी हर झूठी बात सच लग रही थी। अब उनकी आवाज इतनी धीमी हो गयी थी कि उनके मुंह के पास कान ले जाने पर ही सुनाई देती। मुझे लग रहा था, मित्र की अब विदा की वेला है।
      पत्नी का मुख देखने की लालसा  ही उन्हें बचाये हुए है। मैंने बाहर देखा-'उनके बड़े भाई साहब पहले की तरह छालिया कतरते गपशप कर रहे थे। वे एक बार भी छोटे भाई से बतियाने और हालचाल पूछने नहीं आये थे। जैसे वे उनकी मौता का इंतजार कर रहे हों।
      कुछ देर बाद मित्र की हालत देख कर ऐसा लगा कि आशा का दीपक टिमटिमा रहा है, जो किसी भी वक्त तेज रोशनी के साथ बुझ जायेगा।
      मित्र ने धीमी आवाज में पूछा-'आ गयी क्या?'
      'बस नजदीक आ गयी हैं। उनका एक आदमी आकर खबर दे गया है।'
      'अच्छा।' कह कर उन्होंने आंखें बंद कर लीं।
      थोड़ी देर बाद उनका बोलना बंद हो गया। उन्होंने सिर घुमा कर इधर-उधर देखा, जैसे किसी को खोज रहे हों, फिर उनकी आंखें मुंद गयीं और धीमे स्वर में सुनाई दिया-' वह आ....' यह वाक्य पूरा न हुआ। उनका सिर एक ओर लुढ़क गया। फिर मुंदी आंखें  कभी नहीं खुलीं। उनकी आशा का दीप बुछ गया।

Sunday, May 19, 2013

अति प्रचंड रवि ताप


-डॉ. रुक्म त्रिपाठी
मृग मरीचिका जल सदृश,
लहर-लहर लहराय।
हरिण भागता ही रहे,
किंतु बूंद नहिं पाय।।
पशु, पक्षी व्याकुल फिरें,
नही जलाशय पास।
चहुंदिशि सूखा ही दिखे,
कैसे बुझेगी प्यास।।
सिंह और मृग खोजते,
मिल कर शीतल छांव।
ऐसे संकट के समय,
उनमें नहीं दुराव।।
सूखी जीभ निकाल कर,
लक-लक करता श्वान।
नेत्र बंद कर हांफता,
संकट में है प्रान।।
सुमुखि सुलोचनि कामिनी,
भूल साज शृंगार।
रह-रह करवट बदलती,
व्याकुल बारंबार।।
नहीं सुनायी दे रही,
अब कोयल की कूक,
लगता वह अब चल बसी,
लग जाने से लूक।।
धूल बवंडर बन उठे,
सूखे कूप तड़ाग।
जल विहीन सरिता दिखे,
बिन सिंदूरी मांग।।
पथ-खोरें सुनसान सब.
सन्नाटा है व्याप।
शन : शन : है बढ़ रहा,
अति प्रचंड रवि ताप।।
हवा चले अरहर लगे,
ले हर-हर का नाम।
खड़ी अकेली मोड़ पर,
भजती शिव अविराम।।

Thursday, May 16, 2013

पहचान !



जब जब निर्वाचन होते हैं, प्रत्याशी निरीह बन जाते।
याचक बन कर वोट मांगते, फिर दर्शन दुर्लभ हो जाते॥
पांच साल में एक बार वे, हाथ जोड़ कर बनें भिखारी।
तब ऐसा वे ढोंग रचाते, जब मति मारी जाय हमारी॥
सबसे बड़ी भूल यह होती, हम उनको पहचान न पाते।
उनका हाव भाव लख कर के, महा मूर्ख  उल्लू बन जाते॥
जीत गए तो दर्शन दुर्लभ, सेवक तब स्वामी बन  जाते।
हम भी उनके मतदाता हैं, मिलें अगर पहचान न पाते॥
-डॉ. रुक्म त्रिपाठी

Tuesday, April 23, 2013

तब और अब !



पहले नहीं हुआ करती थी, जैसी राजनीति अब होती।
घृणित आचरण के चलते वह, दिन-दिन निज मर्यादा खोती॥
पहले सभ्य, शिष्ट होते थे, राजनीति वाले मतवाले।
अब बहु बाहुबली घुस आए, जिनकी अपनी होती चालें॥
जब भी निर्वाचन होते हैं, सब से अधिक टिकट वे पाते।
भय से, छल से, निज दल  को हैं जो जय दिलवाते॥
राजनीति नहिं सज्जन की अब, नहीं बाहुबल, जो धनवाला।
वही कभी कहलाया करता, प्रत्याशी था सबसे  आला॥
-डॉ. रुक्म त्रिपाठी

Friday, March 15, 2013

पद



(v)
×¢˜æè- ÂÎ ÂÚU Áô ·¤Öè, ÕñÆU ÁæØ §·¤ ÕæÚU Ð
çȤÚU ßãU ©Uâ ÂÚU ¿æãUÌæ, ×õM¤âè ¥çÏ·¤æÚUH
            ×õM¤âè ¥çÏ·¤æÚU, âæÚU ãU×Ùð ØãU ÂæØæÐ
            ÖêÜ ÁæØ çâhæ¢Ì , Á·¤Ç¸U Üð ÂÎ ·¤è ×æØæ H
·¤ãñU L¤€× ·¤çßÚUæØ, ÖÜð ãUô ¿æãðU ⢘æèÐ
âÕ ÒÂÎÓ ×ð´ ãñ´U çÜŒÌ , Õß¿èü ãUô Øæ ×¢˜æèH
                        (w)
·é¤âèü ·¤è ×çãU×æ ¥ç×Ì, ÕÚUçÙ Ù Üæ»ð ÂæÚU Ð
ç·¤ÌÙð ÆUô·¤ÚU ¹æ ç»ÚðU, ç·¤ÌÙð ãUô´ ¥âßæÚU H
            ç·¤ÌÙð ãUô´ ¥âßæÚU, ØæÚU ßãU ÙãUè´ ç·¤âè ·¤èÐ
            ÁæÙð ·¤Õ ÂçÌØæØ, çÙØÌ ·¤Õ ÕÎÜð ©Uâ·¤èH
·¤ãðU ÒL¤€×Ó ·¤çßÚUæØ, »Øð ·¤ãU ÕæÕæ ÌéÜâèÐ
ÒÂýÖéÌæÓ ·ð¤ ãUè Ùæ× , ÂôSÅU, ÂÎ, ÂæßÚU ·é¤âèüH
                                    -ÇUæò. L¤€× ç˜æÂæÆUè